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बूँद-बूँद चूनर सा निचुड़ गया मन ,
तार-तार सिकुड़ गया मानवी वसन।
सूख-सूख टूट गये ,
चाहों के ताने ,
इधर-उधर फैल गये ,
सपनों के बाने ,
असहनीय हुई उसे धूप की तपन ।
उड़-उड़ के रंग हुआ ,
ऐसा चितकबरा ,
दिखता ज्यों अम्बर में ,
सावन का बदरा ,
नये-नये जीवन को लग गया व्यसन ।
गीतों के मैंने ,
पैबन्द कुछ लगाये ,
फटी हुई चूनर न,
पूरी फट पाये ,
जोड़-जोड़ छिने सकल बीते कुछ क्षण ।
पीड़ा ने छिद्र-छिद्र ,
फाड़ दी चुनरिया ,
जगती ने जीवन की ,
लूट ली बजरिया ,
बचा नहीं भावों का एक भी सुमन ।
किसको है फुरसत ,
जो धूप से बचाये ,
तपने को एक बार ,
आँगन में आये ,
छाया से निकल कौन सहे ये जलन ।
— विजय लक्ष्मी विभा
( जगदीश किंजल्क के सौजन्य से )