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यह धूप
यह धूप बताशे के रंग की
यह दमक आतशी दर्पण की
कई दिनों में आज खिल आई है
यह आभा दिनकर के तन की ।
फिर चमक उठा गगन सारा
फिर गमक उठा है वन सारा
फिर पक्षी-कलरव गूँज उठा
कुसुमित हो उठा जीवन सारा ।
यह धूप कपूरी, क्या कहना
यह रंग कसूरी, क्या कहना
अक्षत-सा छींट रही मन में
उल्लास-माधुरी क्या कहना ।
फिर संदली धूल उड़े हलकी
फिर जल में कंचन की झलकी
फिर अपनी बाँकी चितवन से
मुझे लुभाए यह लड़की ।
— अनिल जनविजय
( मास्को रेडियो में हिन्दी कार्यक़म अघिकारी )