पृष्ठ २३ – कुछ चुनें हुए मुक्तक

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कांपती लौ  ये सियाही, ये धुआँ, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी वेद थी पर जिल्द बंधाने में कटी !…….
— गोपाल दास ‘नीरज’
क़र्ज़ रो-रो के भरा, उम्र की सब किश्तों का
और सम्मान किया, वक्त के सब रिश्तों का
फिर भी कुछ मुझमें कमी है तो न गाली दो मुझे-
आदमी टूटा हुआ ख्वाब है फरिश्तों का !……..
गोपाल दास ‘नीरज
( धनंजय सिंह के सौजन्य से )

आज हुई न अगर बोहनी दिन छल जाएगा
बिन पैसे के आस का ये सूरज ढल जाएगा
लकड़ी का बस एक खिलौना ले लो बाबूजी
मेरे घर भी आज शाम चूल्हा जल जाएगा ।
— ( हरे राम समीप  फ़रीदाबाद , हरियाणा )

कुर्सी के लिए शाने वतन बेच रहे हैं।
इस दौर के गुलचीं भी चमन बेच रहे हैं।
इक चाय बेचता है इक ईमान बेचता,
कुछ लोग तो लाशों के क़फ़न बेच रहे हैं।
—  कृष्ण कुमार ‘बेदिल
(मेरठ उ प़ )
वक्त कोई बुरा नहीं होता
काम कोई बुरा नहीं होता
अपनी सीरत सम्हाल कर रखिये
साथ कोई बुरा नहीं होता ।
शकुंतला तरार
रायपुर ( छत्तीसगढ़ )