गीत पृष्ठ ६
व्यंजनाओं की खबर किसको यहाँ होती
आज तो है काटता पागल हुआ इतिवृत्त ।
और कोई नाम कोई पा सके चाकू
बोलती जब सिर्फ अभिधा तेज उसकी धार
इस गली में चीर देगी आयतों का तन
उस गली में हो गई है यह ऋचा के पार
पाल कर हैवानियत को तख्त के नीचे
आदमी का खून पीकर संत होते तृप्त ।
पंख छितरे मंदिरों मे उन कपोतों के
स्पर्श से जिनके पुलकता था कभी आकाश
दूर पश्चिम से उतरते टोल गिद्धों के
नोचने को बस्तियों की स्याह होती लाश
सिसकती सुनसान में अब तो हवा घायल
इस बगीचे में पड़ीं सब फूल कलियाँ ध्वस्त ।
— राजेन्द्र गौतम
( दिल्ली )
आज कई रत-जगे हो गए ।
नीड़ नयन का ख़्वाब हो गए
रिश्तों से अनुराग खो गए
चाँद-चकोरी के किस्से भी,
शब्दों के व्यापार हो गए ।
आज कई रत-जगे हो गए ।
शब्द वही पर अर्थ खो गए
राग-रागनी व्यर्थ हो गए
जीवन की आपाधापी में,
हम अपनी पहचान खो गए
आज कई रत-जगे हो गए च
हम कितने अंजान हो गए
अंजाने मेहमान हो गए
घूँघट की चौखट में,लम्पट
नयनों के ही मान हो गए
आज कई रत-जगे हो गए ।
विक्रम सिंह
( शहडोल , म प़ )
अनिल जनविजय के सौजन्य से ।