आलोचना खण्ड पृष्ठ २७
आज कल की कविता
आजकल की कविताओं के साथ समस्या ये है कि उनमें अखबारीपन हद दर्जे तक भर चुका है। या शायद हमारी अखबार पढ़ने की आदत ही ऐसी है कि हम कुछ बिंब-रूपक के रास्ते कविताओं में अखबार ढूंढते हैं और बेचारा कवि अपने पाठकों की उम्मीद को पूरा करने में लगा रहता है। लचर कविता अक्सर ही ज्यादा सामाजिक चेतना का दिखावा करती है ।
बात इतनी ही है कि कविता समाज के संकट को नहीं बता रही है बल्कि समाज की रिपोर्टिंग करने में लग गई है। तुरत-फुरत खपत के लिए जैसे खबर तैयार होती है, वैसी ही कविता तैयार हो जाती है। वह उठती तो बड़े जोश से है पर अपने प्रभाव में लड़खड़ा जाती है। कविता में मिलने वाली सामाजिक चेतना इतनी स्थूल नहीं होनी चाहिए कि लगे कि हम किसी अखबार के पन्ने से गुजर रहे हैं। उसकी सामाजिक चेतना से काव्यात्मकता ही पुष्ट होनी चाहिए, न कि कोरी चेतना।
— वैभव सिंह
( नई दिल्ली )
कविता के लिए चिन्ता
इन दिनों हिंदी कविता को लेकर कुछ लोगों को कुछ ज्यादा ही चिंता हो चली है। इसको लेकर गैर कवियों को ही नहीं सुकवियों को भी चिंता सताने लगी है। अच्छी कविताएं लिखने का दावा करने वालों की चिंता है कि बुरी कविता ने उनकी अच्छी कविताओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। मंचीय कविता तो पहले से ही सितम ढाती रही है, अब पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली बुरी कविताओं ने भी यही काम करना शुरू कर दिया है। यानी इसने अच्छे, चर्चित, प्रसिद्ध सुकवियों की कविताओं के सामने पहचान का संकट पैदा हो गया है। बुरी कविता की भीड़ में उनकी अच्छी-कालजयी कविताएं गुम हो जा रही हैं। पाठक तो उसे पहचान ही नहीं पा रहे हैं। आलोचक भी पाठकों के कान नहीं पकड़ रहे हैं। उन्हें बता नहीं रहे कि भैये ये रहीं अच्छी कविताएं, इन्हें ही पढ़ो। सपाट-सीधी कविता भी कोई कविता है। वह कविता अच्छी भला हो भी कैसे, जिसे समझने में आलोचक या खुद कोई सुकवि मदद न करे। 60-70 करोड़ या इससे भी ज्यादा पढ़ने या समझने वालों की भाषा में 500-1000 या इससे भी कम प्रतियां छपने वाली पत्रिकाओं के मूढ़ संपादकों को कविता की तमीज ही नहीं सो ज्ञान बढ़ाऊ गद्य की जगह अच्छी कविता को नुकसान पहुंचाने वाली कविताएं छापे चले जा रहे हैं। प्रकाशक भी बुरे कवि, बुरी कविता को छापे ही चले जा रहे हैं। भले ही 200-300 प्रतियों का संस्करण छाप रहे हैं।
कुछ इस तरह की मानसिकता के शिकार लोगों के बारे में आपका क्या कहना है? ऐसे दौर में जब पूरे साहित्य को ही हाशिए पर धकेल दिया गया है, उसे समाज में प्रतिष्ठित करने की दिशा में कुछ पहल करनी चाहिए या अच्ची-बुरी का रोना लेकर बैठ जाना चाहिए?
— शैलेन्द़
( कोलकाता ़ , पश्चिमी बंगाल )
आज की कविता
हिंदी साहित्य के प्रख्यात कवियों में जयशंकर ‘प्रसाद’, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, नागार्जुन, ‘हरिऔध’, भवानीप्रसाद मिश्र, मुक्तिबोध जैसे अनेक कवियों ने अपनी-अपनी शैली के अनुसार कवितायें रची और साहित्य जगत में सुस्थापित हुए परन्तु जनलोकप्रियता की कसौटी पर वे कमजोर पड़े। मंचीय कवितापाठ ने जब सामान्यजन को कविता से जोड़ा तब ही कविता लोकप्रिय हुई और कवि भी। आज़ादी की लड़ाई में संलग्न योद्धाओं की स्मृति में रची गई कविता, भारत की स्वाधीनता से प्रभावित होकर लिखी गई राष्ट्रोत्थान की कविता, पड़ोसी देशों के विवाद से प्रेरित उन्मादी कविता, युवाओं के दिल को छूने वाली श्रृंगार व वियोग कविता, समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करती कविता, आमजन की असुविधा पर टिप्पणी करती कविता, स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार को उकेरती कविता, दलितों व गरीबों के दुःख-दर्द को प्रक्षेपित करती कविता ने भारतवासियों की मनोभावना को जैसे शब्द दे दिए।
किशोरावस्था की उत्सुकता, यौवन की हलचल और प्रौढ़ावस्था की परिपक्वता का सम्पूर्ण सार कविगण अपनी कविता और शायर अपनी शायरी में पिरोया करते हैं। न जाने कैसे, उन्हें हमारे दिल का हाल पता चल जाता है ? आप भी यदि ऐसी कविता लिखते हैं या शायरी करते हैं तो मेरा सलाम क़बूल करें।
— द्वारिका प़साद अग़वाल
( रायपुर ,छत्तीसगढ़ )
जनकविता के प़ति आप की ( द्वारिका प़साद अग़वाल की ) चिन्ता उचित है पर लोकप्रिय कविता केवल जनकविता ही नहीं होती स्तरीय , उच्च कविता भी होती है । मंचों पर मिली लोकप्रियता सामयिक होती है । स्थायी और कालातीत लोकप्रियता उस कविता को मिलती है जो कविता के उच्च मानदण्डों पर खरी उतरती है । हर युग में जो कवि कविता का नया रूप और उच्च स्तर सामने रखता है वह कविता विधा को आगे बढ़ाता है । केवल मंचों की वाहवाही कविता के उच्च स्तर का मानदण्ड नहीं है ।– सुधेश