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मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते, जो मय पिये होते ।
क़हर हो, या बला हो, जो कुछ हो
काश कि तुम मेरे लिये होते ।
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी, या रब, कई दिये होते ।
आ ही जाता वो राह पर, “ग़ालिब”
कोई दिन और भी जिये होते ।
— ग़ालिब
कुछ शेर
देके ख़त मुह देखता है नामावरच
कुछ तो पैगामे जुबानी और है ।
हो चुकी “ग़ालिब” बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग-ऐ-नागहानी और है ।
— ग़ालिब
( अजय दुबे के सौजन्य से )
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतने थे
दिल भी यारब कई दिये होते ।
— ग़ालिब
( वेद प़काश वटुक के सौजन्य से )
संवेदना
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूँ ?
मैं दुःखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा
रीति दोनों ने निभाई,
किंतु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूँ ?
एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा ?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा ?
सत्य को मूँदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी ?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूँ ?
कौन है जो दूसरे को
दुःख अपना दे सकेगा ?
कौन है जो दूसरे से
दुःख उसका ले सकेगा ?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी ?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूँ ?
क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुःख नहीं बँटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता,
तुम दुःखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी !
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?
क्या करूँ ?
-हरिवंशराय बच्चन
( हिन्दी पू के सौजन्य से )