कुछ चुनें हुए मुक्तक २१
हम कड़ी धूप में निकलते रहें
काफिले रात में भी चलते रहें
कोशिशें कम न हों किसी सूरत
चिराग आंधियों में जलते रहें ।
-सूर्यकुमार पांडेय
( लखनऊ उ प़ )
लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़ा-ए-सुब्ह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुस्कुराए जैसे ।
— फिराक़ गोरखपुरी
( रुबाई नामक संग़ह से )
काँटों को रूप का श्रृँगार बनते देखा है
मौन खामोशी को भी हुँकार बनते देखा है
इन बेगुनाहों को इतना भी न सताओ ए-हुक्मरानो
जुनूँ की चिंगारी को अँगार बनते देखा है ।
ऐलेश अवस्थी
( आगरा ,उ प़ )
बदलियां जाने किस दयार मेँ हैँ
लोग पानी के इन्तिज़ार मेँ हैँ
तुम मसीहा की सफ़ मेँ बैठे हो
हम दवाओँ के इश्तिहार मेँ हैँ ।
— शबाब मेरठी