पृष्ठ १७ – कविताएँ

पृष्ठ १७

फुलवा

आंख खोलते ही द
निकल पड़ा फुलवा
लंबी काली कठोर सड़कों पर
छाती में फूल छिपाये ,
उसके मैले कमीज के पल्ले में थी
गेंदे की पीली हँसी
जुही की कंवारी खुशबू
गुलाब की रक्तिम आभा
हरसिंगार की मस्त जवानी.
बस की बाट जोहते बाबु से पुछा
‘फूल चाहिये ?’
उत्तर पाया – ‘चल बे डेमफूल’
पास खड़ी सुन्दरी
खुद थी फूल केवड़े का गबरीला.
प्रेमी युगल
प्रेममदिरा के मद में बहका –
‘जूही कितने की ?’
फुलवा उछाहा में कोयल- सा चहका –
‘एक रुपैया’
ठिठका सुन-
‘एक चवन्नी लेगा ?”
धरती का नन्हा फूल
बेचता रहा फूल
दिन भर सडकों की फांक धूल
उसका ना बिका पर एक फूल
था नहीं कागजी या प्लास्टिक
उसका था असली टंच फूल.
आखिर फुलवा थक गया बैठ
फिर जागी जालिम भूख पेट
उठ खड़ा हुआ
चल दिया उधर
आती थी मीठी महक जिधर
ढाबे पर पूछा-
‘लोगे फूल
‘ये देखो इत्ते सारे फूल ?’
मालिक ने यों ही पूछ लिया
‘क्या लेगा इनका ?’
फुलवा ने समझा गाहक है
अब मोल बताना नाहक है
वह रुंधे गले से फूट पड़ा
तुमको क्या कहना लालाजी
इनकी कीमत इक रोटी
बस मना न करना लालाजी
इनकी कीमत इक रोटी
हाँ इक रोटी ‘.
हाँ इक रोटी .’…….
— . सुधेश