ग़ज़लें पृष्ठ १०
घर नहीं है मकान बाक़ी है
ज़िन्दगी का निशान बाक़ी है ।
जब भी मिलते हो रूठ जाते हो
यानी रिश्तों में जान बाक़ी है ।
दुश्मनों ने गवाही हक़ में दी
दोस्तों का बयान बाक़ी है ।
अपनी तौबा को फ़ैसला न समझ
अब भी शीशे में जान बाक़ी है ।
तल्ख़ियां तो नहीं रहीं फिर भी
फ़ासला दरमियान बाक़ी है ।
मंज़िलें कब की पीछे छोड़ आये
दर्द क़ायम थकान बाक़ी है ।
कह रही है ये बिजलियों की चमक
सिर पै इक आसमान बाक़ी है ।
तुम से क़ौसर सवाल करने हैं
आख़िरी इम्तिहान बाक़ी है ।
— पूनम क़ौसर
( लुध्याना , पंजाब )
प्यार जब से हो गया है एक अफसर की तरह ,
जिन्दगी लगने लगी है एक दफतर की तरह ।
रोज मिलकर भी जहां पर लोग मिल पाते नहीं ,
दिल भी अब मिलने लगे हैं ‘रांग’ नम्बर की तरह ।
पत्तिनियों के पक्ष में जब से बने कानून हैं
उनकी नजरें घूरती हैं एक जेलर की तरह ।
आज मंहगार्इ में सब घर उग्रवादी हो गया ,
उनकी चितवन भी लगे है एक खंजर की तरह ।
राधेश्याम बंधु
( यमुना बिहार , दिल्ली )