सेना और राजनीति
उत्तराखंड की मानवीय और पर्यावरण की त्रासदी ने कुछ लोगों की संवेदना को झकझोरा है। देश में एक नया परिदृष्य देखने को मिल रहा है। इतने भयानक मानवीय संकट के प्रति जिस प्रकार की उदासीनता राजनीति और दूसरे क्षेत्रों में नज़र आ रही है वह चौंकाने वाली है। आज जबकि राजनीतिक दलों का ध्यान मानवीय त्रासदी पर केंद्रित होना चाहिए था, उनके लिए 2014 का चुनाव अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस संकट का इस्तमाल राजनीति कई तरह से अपने अपने हित में कर रही है। सबसे पहले राजनेता अपने वोट हितों को साध रहे हैं। चंद्रबाबू नायडू इस बात से नाराज़ थे कि आंध्र के लोगों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। जहाँ मौत का दस्तरख़ान बिछा हो वहाँ क्या जाति और राज्य का भेदभाव संभव है। मौत के उस प्रपात ने क्या भेदभाव किया कि वे किसको खाए, किसको छोड़े। सबसे ज़्यादा कहर तो उत्तराखंड में नदी किनारे बसे गाँवों पर टूटा। गाँव, खेत, जानवर और निवासी बह गए। नामो निशान नहीं बचा। क्या मौत से कोई शिकायत कर रहा है कि उन लोगों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया जो अपने सीमित साधनों के बावजूद श्रद्धलुओं की सहायता कर रहे थे। भोजन-पानी बिना भेदभाव के यथासामर्थ्य मोहेय्या करा रहे थे। दूसरा ढंग था गुजरात के मुख्यमंत्री का। वे सहायता करने नहीं गए। 1500 फंसे गुजरातियों को हैलिकाप्टर से निकालने गए। भले ही अब स्पष्टीकरण दिया जा रहा हो। लेकिन अंग्रज़ी के हिंदू ने लिखा है कि यह वक्तव्य उत्तराखंड की बीजेपी के पार्टी अध्यक्ष के कर्यालय से दिया गया था। तीसरा तरीक़ा देहरादून के हवाई अड्डे पर कांग्रेस और टीडीपी के सांसदों के बीच आंध्र से आए श्रद्धालुयों को अपने अपने हैलिकाप्टर में ले जाने के सवाल पर होता हुआ झगड़ा चेनल्स पर दिखाया जा रहा था। सवाल रेस्क्यू का था न कि यह था वे किसके हैलिकाप्टर में जाएं। चौथा प.बंगाल की मुख्यमंत्री की चेतावनी थी कि उनके प्रदेश के लोगों को सुरक्षित पहुंचा दिया जाए। ये सब स्वतंत्र देशों की तरह व्यवहार क्यों कर रहे थे। वोट की राजनीति क्या देश को इस तरह बाँट देगी? उत्तराखंड का सरकारी अमला ठ”जिस प्रकार तटस्थ है वह भी एक दुखद स्थिति है। कई ऐसे पहाड़ी क्षेत्र हैं जहाँ प्रदेश के मुख्यमंत्री या कोई अधिकारी अब तक नहीं पहुचा। पिथोरागढ़ में एक रोज़ पहले एनडी टीवी की टीम पहली बार पहुंची थी। पूरी घाटी में बहुत ज़बर दस्त बरबादी हुई है। वही आदि कैलास की यात्रा पर जाने का द्वार माना जाता है। वहाँ लोगों के पास खाना नहीं। लोग फंसे हुए हैं।
एक दूसरा पक्ष भी सामने आया। अगर यह त्रासदी न हुई होती तो शायद यह तस्वीर सामने न आती। अभी तक यही सुनने को मिलता था कि सेना जनता पर ज्यादतियाँ करती हैं। लेकिन राजनीतिज्ञों की इस उपेक्षा के मुकाबले सेना के तीनों अंगों का यह मानवीय व्यवहार देख कर देश के लोग यह समझ गए हैं सेना राजनीतिक खुदगर्ज़ी के मुक़ाबले अधिक मानवीय है। जहाँ रसद नहीं पहुंच रही, जबकि रसद बरबाद हो रही है। वहाँ जाबाज़ पायलेट नदी की रेती पर रसद डाल कर जा रहे हैं जहाँ उतरने के लिए जगह नहीं हैं। जबकि कुछ ही दिन पहले इन जाबाज़ों का हैलीकाप्टर नष्ट हो गया ओर जान बचाने वाले 20 जांबाज शहीद हो गए। जो भी यात्री लौट रहा है वह यही कहता हुआ आता है कि अगर सेना के जवान न होते तो हम भी पता नहीं कहाँ होते। सेना के जवान देवदूत बनकर आए हैं। जनरल विक्रम सिंह ने 28 जून को राघव नाम के एक व्यक्ति को जो अपने दाक्षिणात्य परिवार के लोगों ढूंढ रहा है कहा कि हम यहाँ हैं हम तब तक रहेंगे जब तक एक एक व्यक्ति को सुरक्षित स्थान पर न पहुंचा दें। जंगल-जंगल जा कर तलाश करेंगे। यात्रियों न यह भी बताया कि कई स्थानों पर सैनिकों ने स्वयं खाना बनाकर भूखे यात्रियों को खिलाया। अख़बार में एक तस्वीर देखकर माथा स्वतः झुक गया। जनरल चैत स्वयं एक महिला का हाथ पकड़कर उसे सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे हैं। किसी मंत्री या राजनेता ने किसी मुसीबतज़दा की उंगली भी शायद ही छुई हो। प्रदेश सरकार के अधिकारियों के लिए होटल से लंच पैकेट मिष्टान्न के साथ आते हैं वे और उनका स्टाफ़ स्वादिष्ट भोजन करता है। अखबारों में जब ऐसी ख़बर छपती हैं तो ऐसा लगता है यह देश कभी तरह तरह के फूलों का गुलदस्ता था जो प्रेम की खुशबू बखेरता था। लेकिन यह सब देखकर लगता है कि फूल झड़ गए, काँटे रह गए। शिव पूजा करने के लिए शंकराचार्य और रावल लड़ रहे हैं जबकि शवों का ढेर लगा है।
सबसे बड़ी बात है कि उत्तराखंड की इस त्रासद घटना से जनता को पता चल गया कि जवान से लेकर जनरल तक का सेवा का जज़्बा तथाकथित जनसेवकों और अन्य सब वर्गों से बड़ा है। आप कह सकते हैं कि उनके पास प्रशिक्षण है। दिल के बिना प्रशिक्षण क्या करेगा। कभी ऐसा भी ज़माना था जब राजनीतिक दल ऐसे आपतकाल के समय अपने अपने सेवा कैंप लगाते थे। अब हर मुसीबात को राजनीतिक दल वोट की बिसात मानकर चाल चलने लगते हैं। देश की सबसे बड़ी त्रासदी ने जनता के सामने सेना की मानवीय तस्वीर उजागर कर दी। राजनीति के लिए सबक भी है और सोचने का अवसर भी। सेवा कई बार मन बल देती है।
— गिरि राज किशोर
( कानपुर उ प़ ) ़