पृष्ठ १६ — कविताएँ ( मौसमों का क़म तथा अन्य कविताएँ )

मौसमों का क़म ओर मानव 

   गर्मी बहुत है
    पर प्यार की गर्मी नहीं है
    रिश्ते सारे विश्व से हैं
    उन की डोर में अपने नहीं क्यों
    रिश्ते मात्र औपचारिक हुए ।
समय के चक़ में
बरसात भी आई झमाझम
उस के साथ अश्रु वर्षा
आपदा की बाढ़ भी
मन की किश्तियों को
बहा ले जाएगी अतल में ।
    धरती खिसक कर
    सूर्य से कुछ दूर होती
    सर्दी शुरु हुई
    वक़्त पर कभी बेवक्त
     हड्डियों को कँपाती
     तब गर्मी याद आई
     बिछुड़ी प़ेमिका सी ।
ग़ीष्म वर्षा शरद के बाद
शिशिर का क़म
न जाने कब से चला
कब तक चलेगा ।
      प़कृति के मंच का
      पात्र है मानव
      हंसेगा कभी रोयेगा
      जगत नाटक कब तक चलेगा
      शायद समय के अन्त तक ।
                मानसर
वक के साथ हंस
दिखा मानसर में
मैं ने वक से पूछा
” यह कैसे हुआ “
वक ने बका
“यह प़जातन्त्र है “
हंस ने हंस कर कहा
” यह मिली जुली सरकार है ” ।