बरसा न परबतों पे जो बादल घिरा किया
शिक्वा न फिर भी प्यास ने लब से ज़रा किया ।
घर मेरा आसमां ने जलाकर गिरा दिया
उड़ती है ख़ाक सारे जहां में बुरा किया ।
हंस हंस के नाचती है ज़मीं मेरे हाल पर
जिस आंख में उठा था उसी से गिरा किया ।
गर्दिश में जिस्मो-जां पे मुसल्सल सितम हुए
हाकिम ने वक़्त के भला कब आसरा किया ।
कब से हूं रहगुज़र में यां उजड़े दयार सा
इक बार जो गया कहां वापस फिरा किया ।
लौटा है फिर क़रार को अपनी ही नींद में
किस किस के ख़ाब में मेरा पंछी फिरा किया ।
ये मेरा हाल-ए-ज़र्द था अपना बयां करो
तुमने ख़िज़ां के पेड़ को कैसे हरा किया ।
क्या कीमिया था यार कि दुनिया पे छा गए
खोटा तुम्हारा माल था कैसे खरा किया ।
— दिलीप शाक्य
असिस्टेन्ट प़ोफेसर , जामिया मिल्लिया इस्लामिया , नई दिल्ली