२ काव्य खण्ड
क – गीत
एक डगर पर हम चलते हैं
एक डगर पर हम चलते हैं, एक डगर भीतर चलती है ।
जितना इस जीवन को जाना, उतना लगा नया-अनजाना
पाया सब, संतुष्ट हुआ कब, जो न मिला, उसका दुःख माना
कहीं अकर्म रहा जीवन में, नहीं नियति की यह गलती है
एक डगर पर हम चलते हैं, एक डगर भीतर चलती है ।
जब-जब अंधकार ने घेरा, मिलने आया नया सवेरा
जब भी लगा डूबने, उसने खींचा हाथ पकड़कर मेरा
बाहर तिमिर घना घिरता तब, भीतर ज्योतिशिखा जलती है
एक डगर पर हम चलते हैं, एक डगर भीतर चलती है ।
प्रतिपल अनहोनी का होना, कैसा पछताना, क्या रोना
कितना पूर्ण, न भीतर देखा, रिक्त मिला मन का हर कोना
संग्रह की परिणति यह पाई, इच्छा सदा हाथ मलती है
एक डगर पर हम चलते हैं, एक डगर भीतर चलती है ।
— सूर्य कुमार पाण्डेय
लखनऊ ( उत्तर प़देश )