१८ — कविताएँ ( “पिता” , “बेटियों के प़ति” )

 

 

           पिता
मां अगर प्यार की है इक बदली
पिता साया बड़े दरख़्त सा है ।
मां तो कोमल है जैसे मलमल सी
पिता खादी की तरह सख्त सा है ।
मां सरस शांत एक सरिता सी
पिता एक पद है जो अव्यक्त सा है ।
मां है गौरा जो गौर सब करती
पिता है शिव जो एक विरक्त सा है ।
मां तो एक भावना है पूजन की
पिता एक कर्म है जो भक्त सा है ।
अशोक अवस्थी
लखनऊ-
फोन  09838727587
    बेटियों के प़ति 
मैं मौन रहूँ
तुम गाओ
जैसे फूले अमलतास
तुम वैसे ही
खिल जाओ ।
जीवन के
अरुण दिवस सुनहरे
नहीं आज
तुम पर कोई पहरे ।
जैसे दहके अमलतास
तुम वैसे
जगमगाओ ।
कुहके जग-भर में
तू कल्याणी
मकरंद बने
तेरी युववाणी ।
जैसे मधुपूरित अमलतास
तुम सुरभि
बन छाओ ।
— अनिल जनविजय
( मास्को रेडियो )