ख — ग़ज़लें
सज़ा-ए-हुस्न-परस्ती बजा, बजा भी नहीं
कि जुर्मे-इश्क़े-बुताँ हैं बुरा, बुरा भी नहीं ।
अरे ख़ुदा तो अमीरों का है ख़ुदा वाएज़
जिसे ग़रीबों का कहिए ख़ुदा, ख़ुदा ही नहीं ।
वो जैसे है ही नहीं इस अदा से सामने है
अगर कहूँ कि वो मुझसे खफ़ा, खफ़ा भी नहीं ।
अदा, अदा से अदा हो तो हम अदा समझें
नहीं अदा-दर-अदा जो अदा, अदा भी नहीं ।
अज़ब ये दौर है या रब कि ख़ुश-जमालों को
वफ़ा, वफ़ा भी नहीं है, जफ़ा, जफ़ा भी नहीं ।
भला है कौन, बुरा कौन, इस ज़माने में
बुरा, बुरा भी नहीं है, भला, भला भी नहीं ।
निगाहे-नाज़ से क्या सुन के दिल उदास हुआ
अगर कहें कि कुछ उसने कहा, कहा भी नहीं ।
ज़माँ-मकाँ का ये परदा हिजाबे-अकबर है
हज़ार बार ये परदा उठा, उठा भी नहीं ।
वो आँख कहती है ऐसे का क्या ठिकाना है
‘फ़िराक़’ आदमी तो है भला, भला भी नहीं ।
— रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी
( श्री ओम थानवी जी के सौजन्य से प़ाप्त )