पृष्ठ ४ — सम्पादकीय

१ — सम्पादकीय

                 सहज कविता क्या और क्यों ?

सहज कविता किसी नई क़िस्म की कविता का नाम नहीं है , जैसे पहले विभिन्न
क़िस्मों की कविता लिखने के दावे किये गये हैं । कविता को किसी क़िस्म या
प़कार में बाँधना उस के स्वाभाविक विकास को रोकना है । सहज कविता को मैं कोई
नया आन्दोलन अथवा नया नारा भी नहीं मानता और न सहज कविता को नये
आन्दोलन का रूप देना चाहता हूँ , यद्यपि आन्दोलन की अपनी सार्थक भूमिका
होती है । आन्दोलन के उद्देश्य की ओर संकेत करने के लिए नारों की आवश्यकता
पड़ती है । इस लिए नारा अपने आप में अनुपयोगी वस्तु नहीं है । फिर आन्दोलन
के लिए कुछ या अधिक ऐसे लोगों के संगठन की ज़रूरत होती है जो समान या
मिलते जुलते विचार रखते हों । अकेला व्यक्ति कोई नारा तो लगा सकता है  ,
पर आन्दोलन नहीं कर सकता । संगठन के साथ धन और जनबल भी चाहिये ।
मेरे पीछे न कोई संगठन है न धन एवम् जनबल ।
 फिर सहज कविता है क्या ? यह हिन्दी कविता में सहजता की तलाश है अथवा
सहजता का आग्रह मात्र है । आज की गद्या़त्मक कविता के ढेर में सच्ची कविता
मुश्किल से मिलती है , यद्यपि मेरा विश्वास है कि सच्ची कविता भी लिखी जा रही
है , पर उसे ढंूढने की ज़रूरत है । उस सच्ची कविता को मैं सहज कविता कहता
हूँ ।
 अब दूसरे प़श्न पर आता हूँ । सहज कविता क्यों ? सहज कविता इस लिए कि
उसी से हिन्दी कविता की लोकप्रियता ,पठनीयता और सम्प़़ेषणीयता बहाल
होगी । आज की अधिकांश हिन्दी कविता लोकप्रिय नहीं है । कुछ शिक्षित बुद्धि
जीवी ही उसे पढ़ते हैं या यों कहिये कि जो उसे लिखते हैं वे ही उसे पढ़ते और
समझते हैं । हिन्दी के आम पााठकों के लिए वह पठनीय नहीं है क्योंकि उस में
सम्प़ेषणीयता का अभाव है । कविता कुछ सार्थक सम्प़ेषित करे और आम भाषा
में सम्प़ेषित करे तो आम पाठक भी उसे समझ लेगा ।