सविता नायक की रिपोर्ट
न्यूयॉर्क में इसी महीने 15 जून को श्री नरेन्द्र कोहली जी के सम्मान में साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें न्यू यॉर्क, न्यू जर्सी, कनेटिकट, टेक्सस इत्यादि जगहों से आये हुए बहुत से साहित्यिक प्रेमिओं ने भाग लिया डा.नरेन्द्र कोहली की गणना आधुनिक हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों में होती हैl उन्होंने हिन्दी साहित्य में ‘महाकाव्यात्मक उपन्यास’ की विधा को आरम्भ किया और पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवंउनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया हैl उनकी सौ से भी अधिक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैंl
सुषम जी ने श्री नरेन्द्र कोहली जी का संक्षिप्त परिचय देते हुए गोष्ठी का शुभारंभ किया और कोहली जी से ‘लेखक का रचना संसार’ विषय पर कुछ कहने का अनुरोध कियाl
श्री कोहली ने कहा कि “लेखक बनता नहीं, होता है” और ऐसा नहीं है कि उन्होंने किसी बात या घटना से प्रेरित होकर लिखना शुरू किया होl उनके शब्दों में “जैसे बच्चे के लिए खेलना स्वाभाविक है, वैसे ही लेखक के लिए लिखना स्वाभाविक हैl लेखक का पहला गुण है ‘अभिव्यक्ति की उत्कंठा’ होना !मन की सारी बातें कहकर नहीं बताई जा सकतीं इसलिए सारी शिकायतें और अनकही बातें लेखक की रचनाओं में आ जाती हैंl शुरू में कटुता और आक्रोश को व्यक्त करने के लिए व्यंग्य लिखना शुरू कियाl”
श्री कोहली ने बताया कि प्रारंभ में उन्होंने बहुत सी कवितायें भी लिखीं पर उनको पढ़कर उनको स्वयम ही ऐसा लगा कि कविता उनका क्षेत्र नहीं है और इस विचार के आते ही उन्होंने अपनी लिखी सभी कविताओं को नष्ट कर दिया और कविता लिखने के विचार को त्याग दियाl
व्यंग्य लेखन से प्रारंभ करने के पश्चात उपन्यास लिखना प्रारंभ करने पर श्री कोहली ने कहा कि ‘केवल निंदा करके आप समाज को कुछ दे नहीं सकते, इसलिए कुछ सकारात्मक भी होना चाहिए अतः वह उपन्यासकार के रूप में संतुष्ट हैंl’
शुरू में पौराणिक काव्यों को अपनी रचना का आधार बनायाl कॉलेज के दिनों में हुई एक घटना का उनके मनस्थल पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनकी रूचि पौराणिक काव्यों, रचनाओं और उनके पात्रों में हुई जिनको उन्होंने कई बार अपने उपन्यास का आधार भी बनायाl कॉलेज के दिनों में देखा कि कैसे एक अच्छे भले चल रहे समारोह में जहां हजारों विद्यार्थी औरसैंकड़ों शिक्षक भाग ले रहे थे, वहां कैसे केवल एक व्यक्ति द्वारा किसी पर चाक़ू से वार करने से पूरा कार्यक्रम अस्त-व्यस्त हुआ और उनके मन में विश्वामित्र जागा कि कैसे इस युग में भी केवल एक व्यक्ति अपने ऐसे कर्म से इतने बड़े यज्ञ को ध्वंस कर सकता हैl अतः आज के सन्दर्भ में भी जब-जब कुछ ऐसा देखते या पढ़ते हैं तो पौराणिक कथाएं व उनके पात्र याद आते हैं और मन विश्वामित्र को खोजता हैl समकालीन समाज की घटनाएं उनके लिए ‘विश्वामित्र का समय’ थीं जिनमें उन्होंने अपने मानसिक संसार को जाना और समझा और वह सब ‘बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव’ बनेl उनके शब्दों में ‘प्रकृति के नियम नहीं बदलतेl अच्छाई और बुराई पहले भी थी और आज भी विद्यमान हैl’ उन्होंने पौराणिक कथाओं के पात्रों को आज के सन्दर्भ में देखा और लिखाl
किसी भी रचनाकार को अपनी रचना के पाठक वर्ग का सीमित या कम होने को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिएक्योंकि यह आवश्यक नहीं कि हर रचना को सभी पाठकवर्ग पढ़ें या पढ़कर सराहेंl श्री कोहली ने कहा कि यह पाठक की रूचि पर निर्भर करता है कि वह कैसी रचनाएं पढ़ना पसंद करता हैl वैसे भी हर व्यक्ति पुस्तक पढ़ने के लिए पैदा नहीं हुआ है और यह भी सत्य है कि हर पढ़ने वाला केवल साहित्य ही नहीं पढ़ता अपितु उसकी रूचि किसी दूसरी विधा में भी हो सकती है और यह रूचि भेद अपने-अपने मानसिक संसार की वजह से होता हैl
श्री राम, कृष्ण, युधिष्टिर, विवेकानंद इत्यादि उनके नायक बने क्योंकि उनमें उनको वे गुण दिखाई दिए जो उनको अपने आस-पास नहीं मिलेl
एक बार जब विवेकानंद जी पर फिल्म बनाने कि बात हुई और श्री कोहली को उसकी स्क्रिप्ट/कहानी लिखने को कहा गया तो उनको बहुत ख़ुशी हुई मगर उनको मन से लिखना पसंद है और इसीलिए उन्होंने फिल्म निर्माता की इच्छा अनुसार कहानी में हेर-फेर नहीं किया, इस कारणवश फिल्म नहीं बनी मगर विवेकानंद के बारे में अपनी रूचि अनुसार लिखते-लिखते इस विषय पर उपन्यास लिखा जिसमें उनके लेखक मन का सारा मानसिक संसार उतर कर आया और उनको तृप्ति हुईl ऐसे ही एक नाटक ‘गारे की दीवार’ पर टी.वी.सीरीअल बनाए जाने की बात हुई मगर मांग रखी गयी कि नाटक में दिखाए गए ‘चोर’ (जिस पर प्रेमी होने का शक किया जाता है उस) को नाटक में सचमुच में ही लड़की का प्रेमी बना दीजीये! मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और इस नाटक पर टी.वी.सीरीअल नहीं बन सका!
लेखक या रचनाकार से व्यवसायिक ख्याति को ध्यान में रखकर उसकी रचना के मर्म को ही बदल डालने को कहना अनुचित हैl ऐसे में जो रचनाकार अपनी रचना की गरिमा को बनाए रखने का लोभ करते हैं मगर पैसे या ख्याति के लोभ में नहीं पड़ते, उनका त्याग भी कम नहींl
लेखक के रचना संसार के बारे में बताते हुए श्री कोहली ने आगे कहा कि लेखक का मानसिक संसार उसके लिए अति महत्वपूर्ण होता है और वह अपनी रचनाओं के चरित्रों के साथ अपने सगे-संबंधियो के साथ बिताये जाने वाले समय से भी अधिक समय व्यतीत करता हैl एक बार उनको उनके बड़े भाई ने पूछा था कि श्री राम, कृष्ण, विवेकानंद इत्यादि के बारे में लिखकर क्या पाया? तो उत्तर में उन्होंने कहा “उनके बारे में लिखने से मुझे अपने भीतर झांकना आ गया! उनके अध्ययन से जाना कि मेरे अपने गुण-दोष क्या-क्या हैं और लाभ यह हुआ कि दोष जान लेने पर ही सुधार किया जा सकता है!अपने पात्रों के चरित्रों के साथ रहने से खुद का चरित्र बेहतर होता हैl लिखने से लेखक उन चरित्रों से गुज़रता है इसलिए अपने भीतर झाँकने और स्वयं को पहचानने के लिए संभवतः ‘लिखना’ पढ़ने से बेहतर माध्यम हैl”
गोष्ठी में, ‘लेखक का रचना संसार’ विषय पर श्री कोहली के विचार सुनने के पश्चात उपस्थित लोगों ने उनसे कुछ और अधिक जानने एवं जिज्ञासा वश कई प्रश्न कियेl
प्रश्न: किसी अन्य व्यवसाय में रहते हुए लिखना या केवल लिखने को ही पूरा समय देने (इन दोनों) में से क्या बेहतर है?
“निश्चय ही एक पर ध्यान देना यानि केवल लेखन पर ध्यान देने से ही बेहतर लेखन किया जा सकता हैl कुछ लोग अन्य व्यवसाय में रहकर भी लिख लेते हैं मगर उनके लिए वैसा कर पाना संभव नहीं हुआl और इसके साथ ही यह भी आवश्यक नहीं कि गरीब लेखक ही दुःख के बारे में लिख सकता है क्योंकि ‘गोर्की’ ने गरीबी से अमीरी तक के बारे में लिखाl दूसरी तरफ ‘रविन्द्रनाथ टैगोर’, ‘टॅालस्टाय’ इत्यादि के पास पैसों की कमी नहीं थी और उन्होंने भी कमाल का लिखाl सबकी अपनी-अपनी क्षमताएं होती हैं और लेखक की क्षमता पर निर्भर करता है कि उसका आंतरिक संसार उससे क्या लिखवाता हैl”