पृष्ठ १७ — …..कविताएँ ( मौसमों का क़म तथा अन्य कविताएँ )

   रोज की तरह 

रोज़ सोचता हूँ
पापड़ बहुत बेले
अब नहीं बेलूंगा
रोज़ सोचता हूँ
बहुत चबाये लोहे के चने
अब नहीं चाबूंगा
रोज़ सोचता हूँ
आजीवन दौड़ाया जिस ने
मृगतृष्णा  के पीछे नहीं दौड़ूंगा ।
     शाम को घर लौटा
     तो पत्नी ने कहा
      एक पापड़ रह गया
      इसे बेल देना
      बच्चे ने फ़रमाइश की
      लोहा चना खाऊँगा मैं भी
      छोटू दौड़ कर बोला
       स्पोर्ट शूज़ दिला दो
       मैं भी दौड़ूंगा
         अबोध बेटी बोल पड़ी
        हम ने देखी है मिरग तिसना फ़िलम
        अप भी देखोगे ।
मैं खाना खा सो गया
सुबह उठ कर लगा सोचने
रोज़ की तरह ।
–सुधेश