उसको पढ़ने को जी मचलता है,
हुस्न उसका किताब जैसा है ।
तुम चिराग़ों की बात करते हो,
हमने सूरज को बुझते देखा है ।
खाक उड़़कर जमीं पे आती है,
आदमी क्यों हवा में उड़ता है ।
खुद को दुश्मन की आँख से देखो,
आईना भी फरेब देता है ।
मस्जिदों में चिराग़़ रोशन है,
दिल में ईमां बुझा-बुझा सा है ।
— आदिल लखनवी
मुहब्बतें ही यहाँ मुहब्बतें मुहब्बतें
ज़िन्दगी की यही हैं राहतें राहतें ।
बनाओगे कब तक यों दुनिया को दोज़ख़
चलेंगी कहाँ तक ये नफरतें नफरतें ।
उम़ भर आरज़ू का सफ़र चलचलाचल
आख़िरी वक़्त भी बची हसरतें हसरतें ।
उम़ भर पालते ही रहे दुश्मनी को
मरने के बाद ज़िन्दा रहीं ये चाहतें ।
नहीं वक़्त लगता है रुसवाई में तो
यहाँ मरने पर ही मिलती हैं इज़्ज़त्तें ।
— सुधेश