ग़ज़लें ८
स्यालकोट ( अब पाकिस्तान में ) के मूल निवासी दौलत राम साबिर पानीपती सन १९६१
में दिवंगत हो गये थे । उन की बेटी प़ेम लता शर्मा , जो अब अमेरिका में रहती हैं , अपने
पिता के कलाम को अपने दिल से लगाए हुए है । उन्हों ने साबिर साहब का कलाम दिल्ली
से अनेक दशकों बाद छपवाया , जिस की एक प़ति उन्होंने कोरियर द्वारा मुझे भिजवा दी ।
उसी में एक ग़ज़ल अपने पाठकों के लिए यहाँ प़स्तुत कर रहा हूँ —
वही लोग कुछ सुर्खरू हो गये हैं
मुहब्बत की वादी में जो खो गये हैं ।
शहीदेअलम एक मैं ही नहीं हूँ
हज़ारों जियाले लहू रो गये हैं ।
ये महफ़िल कहाँ जो यह मक़तल नहीं है
तो ख़ूं इस क़दर क्या यूँही हो गये हैं ।
बहुत बुलबुलों ने यहाँ गीत गाये
बहुत फूल शबनम से मुँह धो गये हैं ।
फ़रेबे मुहब्बत से भागे ये ज़ाहिद
फ़रेबे इबादत़ में आ तो गये हैं ।
नये आने वालो बसद शौक़ आओ
पलट कर न आएँगे अब जो गये हैं ।
जगाया था साबिर जिन्होंने मुझे कल
मेरे देखते देखते सो गये हैं ।