पृष्ठ १४ – कविताएँ

१४

कुरुक्षेत्र अज भी फैला पड़ा है

  दुश्शासनों  दुर्योधनों का वही आतंक
  शकुनि हँसते फिर रहे हैं
  मन्त्र देते मोटी फ़ीस ले कर
  मेरे पास तो संकल्प कोरें
  स्वप्न के अवशेष चाह के कंकाल
  उन से क्या बनेगा  ?
   रद्दी फूंक कर नहीं चूल्हा जलेगा
  घर में लगा कर  आग
  न होती रोशनी ।
उधर बौने बजाते  दुन्दुभी
राजपथ पर जा रहे हैं
सिंहासन निकट जा कर रुकेंगे
रेवड़ी जहाँ बँटती पुरस्कारों की
जीभें लपलपाती हैं
लारें टपकती हैं
दाँतों की हँसी के बीच  ।
  अन्धे मोड़ पर खड़ा मैं
  देखता हूँ दूर से
  झाड़ियों की ओट से
  अन्धे बाँटते हैं रेवड़ी अन्धों को ।
अकेला खड़ा हूँ
अजानी राह पर
मगर चलना पड़ेगा
अन्धे मोड़ से अन्धे मोड़ तक ।
–  सुधेश