पृष्ठ १० – ग़ज़लें

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कहनी जो तुम से बात अकेले में 

            मुझ से होगी वह बात न मेले में ।
यह लाखों का मौसम है सावन का
कैसे  इस  को  तोलूं  मैं धेले  में  ?
            दुनिया बाज़ार हुई सच है फिर भी
             यह प्यार कहाँ बिकता है  ठेले में ?
रक्तिम कपोल तेरे यह कहते हैं
अंधरों ने छापी बात  अकेले में ।
            सब सुन लें कैसे ऐसी ग़ज़ल कहूँ
            जग के गूँगे बहरों के मेले में  ।
 सुधेश 
किसी भी देवता का हो, हर इक वरदान बिकता है,
ये मंदिर है व्यवस्था का जहाँ ईमान बिकता है. ।
खड़े हो जाइए केवल कोई क़ीमत लगा देगा,
अजी बाज़ार है इसमें सभी सामान बिकता है.।
हज़ारों और लाखों की ज़रूरत ही नहीं भाई,
यहाँ तो एक सौ के नोट में ईमान बिकता है.।
न जाने किस समय की बात कर के जी दुखाते हो,
वो तब की बात होगी, आज हर इंसान बिकता है.।
यहाँ पर चुटकुले तो आज हाथों हाथ बिकते है,
बड़ी मुशकिल से लेकिन मे मीर का दीवान बिकता है. ।
तअज्जुब है कि इसको हम सभी सरकार कहते हैं,
जहाँ हर दस्तख़त बिकता है, हर फ़रमान बिकता है. ।
न कोई आड़ होती है, न कोई आँख का परदा,
धड़्ल्ले से खुले में आज हिंदुस्तान बिकता है.।
—  अशोक रावत
                            नोएडा ( ज़िला ग़ाज़ियाबाद उ फ़ )