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बादा अर्थात शराब , साग़र अर्थात शराब का पात्र उर्दू की ग़ज़लों में ख़ूब आते हैं , जिन
के प़तीकात्मक अर्थ भी लिये जाते हैं , पर साबिर साहब बादा और साग़र के बजाए
महबूब ( अर्थात ख़ुदा ) की कृपाओं पर पलने की बात करते हैं ।
उर्दू के सूफ़ी शायरों ने गुल , बुलबुल, शराब , प्याला , साग़र , साक़ी , रिन्द , मैकदा ,
महबूब , माशूक़ , बेवफ़ा आदि शब्दों के प़तीकार्थ लेकर लौकिक प़ेम ( ंइश्क़े मजाज़ी )
से ईश्वरीय प़ेम ( ंइश्क़े हक़ीक़ी ) तक की मानसिक यात्रा की है । साबिर साहब इसी
साहित्यिक परम्परा में पले थे । अत: उन के अनेक शेरों पर सूफ़ी मत ( तसव्वुफ़ ) की
छाप दिखाई देती है । या यो ं कह सकता हूँ कि उन की शायरी में लौकिक प़ेम और
अलौकिक प़ेम की प़दर्शनी लगी हुई है । कुछ ऐसे शेर देखिये —
न मैकश , न साक़ी , न मीना , न साग़र
तो फिर चाँदनी आज छिटके न छिटके । (( पृष्ठ ७० )
कितना मासूम है दिले बिस्मिल
पूछता है मेरी ख़ता क्या है । ( पृष्ठ ७४ )
विसालो हिज़ के झगड़ों से बे नियाज़ हूँ मैं
इसी में देखी है ले दे के बेहतरी मैं ने । ( पृष्ठ ८५ )
ग़ज़लों में विसाल ( मिलन ) और हिज़ ( वियोग ) के क़िस्से प्राय: आते हैं । इन के प़संग
में साबिर तीसरे शेर में कहते हैं कि वे बेनियाज़ ( निस्पृह ) हैं और जैसे झगड़े ले दे कर
निबटाये जाते हैं , वैसे ही ले दे के बेहतरी में उन्हें यक़ीन है ।
साबिर पानीपती की अनेक ग़ज़लों में यथार्थ की गहरी चेतना भी मिलती है , जैसे इस
शेर में —
रूदाद मेरी कौन सुनें किस को सुनाऊँ
इक तल्ख़ हक़ीक़त है ये अफ़साना नहीं है । ( पृष्ठ ८६ )
जीवन की यथार्थ चेतना कभी व्यंग्यात्मक ढंग से प़कट होती है , जैसे इस शेर में
देखिये —
शेरों की मण्डियों में दल्लाल आ घुसे हैं
अब उन को दो कमीशन जो शेर कह लिया हो । ( पृष्ठ ६६ )
संक्षेप में इतना कि साबिर पानीपती का कलाम उर्दू साहित्य में अपना विशेष स्थान
रखता है । वे एक पुख़्ता शायर थे । अपने जीवन काल में उन्हें काफ़ी मक़बूलियत
मिली और पानीपत के मशहूर शायर अल्ताफ हुसैन हाली और सलीम पानीपती की
परम्परा को समृद्ध करने वालों में उन का नाम नुमायां है ।
— डा सुधेश
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