समीक्षा: हसरतों का ग़ुबार १८
” हसरतों का ग़ुबार ” डा दौलत राम साबिर पानीपती के कलाम का संग़ह है , जो साबिर
साहब के देहान्त के बावन वर्षों बाद उन की बेटी प़ेम लता शर्मा ने छपवाया है , यद्यपि
प़काशक के रूप में दिल्ली के अमृत प़काशन का उल्लेख किया गया है । साबिर स्यालकोट
( अब पाकिस्तान में ) के मूल निवासी थे । यह वही शहर है , जिस से उर्दू के शायर मुहम्मद
इक़बाल और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी रिश्ता रहा है । स्यालकोट के शेरोशायरी के
माहौल में कुछ हिन्दू शायर भी पैदा हुए , जिन में दौलतराम शर्मा भी थे ,जो साबिर उपनाम
रखने के कारण दौलत राम साबिर पानीपती के नाम से प़सिद्ध हुए ।
खेद है कि साबिर साहब के जीवन काल में उन का कलाम उर्दू में नहीं छप सका , लेकिन
उन की बड़ी बेटी प़ेम लता शर्मा ने , जो अमेरिका में रहती हैं , उसे हिन्दी की देवनागरी
लिपि में छपवाया है । इसे उर्दू से हिन्दी में लिप्यान्तरित करने का काम श्री मती निधि
मल्होत्रा थदानी ने किया है , जिस में उर्दू उच्चारण का भी ध्यान रखा गया है । इस प़कार
हिन्दी में छपने पर भी उर्दू का रंग इस पुस्तक में देखा जा सकता है ।
पानीपत के शायर और साबिर साहब के क़द़दान डा कुमार पानीपती और अख़गर
पानीपती ने इस संग़ह का संकलन और सम्पादन किया है । ये दोनों भी उर्दू के शायर हैं
और साबिर साहब के सान्निध्य में रहे हैं । इन दोनों की आलोचनात्मक भूमिकाएँ संकलन
के शुरु में संकलित हैं , जो साबिर साहब और उन की शायरी के महत्त्व को समझने में बड़ी
उपयोगी सिद्ध होंगी ।
जहाँ तक इस संकलन का सम्बन्ध है , मैं ने इस की ग़ज़लों , नज़्मों और रुबाइयों को
पढ़ कर अनुभव किया कि साबिर पानीपती मूलत: ग़ज़लगो शायर थे और उन की
अधिकांश ग़ज़लों में उर्दू ग़ज़ल का परम्परागत रंग मौजूद है । परम्परागत ग़ज़लों में हुस्नों
इश्क़ का बयान ज़रूरी माना जाता था , पर उर्दू ग़ज़ल की इस रूढ़ परम्परा से साबिर
साहब अपनी कई ग़ज़लों में अलग होते नज़र आते हैं । उदाहरण के लिए उन का यह शेर
देखिये —
मुझ को कुछ बादा ओ साग़र से नहीं दिलचस्पी
मैं फ़क़त तेरी इनायात पै पल सकता हूँ । ( पृष्ठ ६८ )