१३
राही अजानी राह का
राही अजानी राह का हूँ
चलना काम मेरा
घुप अंधेरी गुफ़ा में विश्राम कर
चल पड़ा था टेढ़े रास्तों पर
अंधे मोड़ से अंधे मोड़ तक
हर मोड़ पर मिले हमदर्द
कटारी आँख ख़ंजर हाथ वाले
हंस कर लूटते हैं स्वत्व
एक ने तो पेट पर ही लात मारी
चारों ख़ाने चित्त मैं
तारे दिखे दिन में
स्वप्न चकनाचूर
उन की किरच चुभती अभी तक आँख में
दधीची हड्डियाँ विरासत में मिली थीं
उठ कर चल दिया फिर वज़ का निर्माण करने ।
मंज़िल का निशाँ ग़ायब
पर राह वेश्या की तरह फैली पड़ी
उठा मस्तक राजपथ पर आगया
सिंहासन दिखा ख़ाली
बढ़ा उस की ओर
मगर उस पर धरा बौना
बैसाखी की कृपा से
बैसाखी संभाले थे
चोर ठग मक्कार पूरे चार
पराजित कर्ण सा मैं चल दिया
जीतने महांभारत नया ।