पृष्ठ ६ – एक पुराना नव-गीत


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    [एक पुराना नव-गीत]
          पत्ते सब मुरझाये
अक्षर-अक्षर व्यथित हो गए
शब्द-शब्द मुरझाये,
कैसे गीत लिखूँ मधुऋतु के
भाव-पुष्प कुम्हलाये ।
सपनों से देहरी सजा दी,
आशाओं से आँगन,
इच्छाओं की सूखी डाली,
रुखा-सूखा सावन
मरुथल की यह कठिन तपस्या
देख नयन भर आये। कैसे गीत……
ठौर ठिकाने जितने भी थे,
उन पर काली छाया,
शोर समाहित हुआ शहर भी,
लुटी-पिटी यह काया।
सड़क-सडक वीरान हो गयी
चौराहे घबराये ! कैसे गीत…..
भेद-विभेद बढाते आये
जन-प्रतिनिधि विषधर से,
बूंद-बूंद अलगाव मांगती
आज मूक निर्झर से!
टहनी-टहनी ठूंठ हो गई
पत्ते सब मुरझाये! कैसे गीत…
गांव-गांव में आग लगी है
धुंआ उठा शहरों से,
खंड-खंड हो गया नेह भी
सागर का लहरों से!
धागे-धागे उलझे,
चादर झीनी होती जाये।
कैसे गीत लिखूं मधुॠतु के
भाव-पुष्प कुम्हलाये।
 — आनन्द वर्धन ओझा
     पुने  ( महाराष्ट्र  )