सम्पादकीय ४
सहजता और सरलता
सहज कविता के बारे में अनेक प़श्न ” सहज कविता ” पत्रिका के पिछले अंकों में उठाए
गए थे ,जिन के उत्तर मैं ने अपने सम्पादकीयों में देने की कोशिश की थी । फिर भी जैसा
कि समाज ,साहित्य , राजनीति और समाजविज्ञानों के क्षेत्र में होता है , कुछ प़श्न च
अनुत्तरित रह जाते हैं अथवा कुछ नए प़श्न खड़े हो जाते हैं । साहित्य में अन्तिम कुछ
नहीं होता ।
यहाँ मैं सहजता को सरलता के साथ रख कर देखना चाहता हूँ । क्या सहजता और
सरलता दोनों पर्यायवाची शब्द हैं ? नहीं , तो फिर दोनों में क्या अन्तर है ? सहजता
को कविता या साहित्य सृजन की प़क़िया से जोड़ कर देखना होगा । सरलता को
अभिव्यक्ति की भाषा से जोड़ा जाना चाहिए । सृजन एक स्वाभाविक प़क़िया है और
जो स्वाभाविक है वह सहज है। स्वाभाविक का अर्थ स्वभाव से जुड़ा हुआ है अर्थात
उस में स्व ओर भाव दोनों शब्द शामिल हैं ।जो अपने भाव के अनुकूल हो वही
स्वाभाविक है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जब कविता भावों के दबाव में
लिखी जाती है ,तब वह स्वाभाविक कविता है , जिसे सहज कविता भी कह सकते हैं ।
कोई तर्क देगा कि कविता ही क्यों साहित्य की प्रत्येक विधा भावों या अनुभवों
के दबाव में लिखी जाती है । इस से कोई मतभेद नहीं हो सकता । प़ेरणा के बिना
कोई साहित्यिक रचना नहीं लिखी जा सकती और प़ेरणा भावोद़ेक से ही मिलती है ।
पर कविता के साथ स्थिति यह है कि उस में भावों की तीव्रता अभिव्यक्ति के लिए
प़तीक्षा नहीं कर सकती , जब कि उपन्यास , कहानी आदि वर्णन प़धान होने के
कारण कथा कि बनावट , पात्रों के चयन और वातावरण निर्माण के उपकरणों को
खोजने की प़क़िया में काफी समय लगता है ।
तो सहजता सृजन की प़क़िया से सम्बन्धित है और सरलता को भाषा के परिप़ेक्ष्य
में अथवा अभिव्यक्ति के साधनों के सन्दर्भ में देखा जाता है ।
इस से आगे बढ़ कर सहज कविता के बारे में कहा जा सकता है कि वह प़ाय:
सरल भाषा में लिखी जाती है , पर केवल भाषा की सरलता ही सहज कविता का
एक मात्र लक्षण नहीं होता , यद्यपि भाषा की सरलता कविता के सम्प़ेषण में सहायक
होती है ।